गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

भरम की जद्दो-जहद

मन ने ये मान लिया है
सँगी कोई नहीं होता
ये जान लिया है

कडवे घूँट पिये बैठा है
चलना तन्हा है
सबके बीच हों चाहे
ये पहचान लिया है

कई बार ये बातेँ होंगीं
किर्चों से मुलाकातें होंगीं
अब नहीं टूटना है
ये ठान लिया है

भरम की जद्दो-जहद तोड़नी है
महक देती है मगर
हर बार रुलाती है
ये जान लिया है

इश्क खुदाई है
बिखरा है जश्ने-मुहब्बत
फिर भी क्यों तन्हाई है
ये पहचान लिया है

देर लगती नहीं दिल लगाई में
देर लगती है मगर भुलाने में
हँस के पी सकूँ कड़वे घूँट
ये ठान लिया है

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

बन्द थी मुट्ठी खाली ही

लम्हा लम्हा टूटे हम
देखो हमको मात मिली
है तो कहानी सबकी एक सी
बात नहीं बे बात मिली

कलम के काँधे पर सर रख कर
थोड़ा सा आराम मिला
सखी भी मिली , चारासाज मिला
दुनिया के पत्थरों से निजात मिली

किसने कहा दामन छोटा है
भर लेता आसमान भी
हर कोई अपनी बाहों में
दिल को न औकात मिली

रेत की तरह फिसले सब
बन्द थी मुट्ठी खाली ही
वक्त हवा न कैद हुए
उम्र की कैसी बिसात मिली

शह देने आया न कोई
दूर तलक आँखों ने देखा
कलम ही लौ को तीखा करती
थोड़ी सी सौगात मिली

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

पहचान नदारद है

पी के जिस घूँट को उड़ते हैं
वो घूँट नदारद है
जो भरती है क़दमों में दम
वो प्यास नदारद है
सींचे जाते हैं खुद को ही ,
देते हैं अर्घ्य जब , दूर खड़े उस सूरज को
पहचानी हुई है वो गर्मी
अरमाँ की हर बात नदारद है
छोड़ो छोड़ो क्या कहना है ,
हम चल लेते अपने दम पर , झाँका अन्दर
नाम लिखा उसी का है
अपनी भी पहचान नदारद है

शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

राहें मन की

बहुत कठिन है डगर जीवन की
बहुत हैं आसाँ राहें मन की
खुद को मिटा कर जी जाता जो
पा लेता वो चाहें मन की

विरही मन से पूछ के देखो
आस-निरास सी बाहें मन की
गलबहियाँ ये खुद को डाले
लाख कहे नहीं राहें मन की

पी डाले ये सब्र का प्याला
प्यास बुझे तब तपते मन की
अपनी बस्ती आप बसाये
कर लेता जब अपने मन की

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

चन्दा ओ चन्दा , चन्दा ओ चन्दा (करवा चौथ पर )

किसी के जीवन का तू उजिआरा
सोलह कला सम्पूर्ण है तू
नित नया परिपूर्ण है तू
शाम ढले बज उठता मन का सँगीत
चन्दा ओ चन्दा , चन्दा ओ चन्दा

इतराता बल खाता , निशा का साथी बन जाता
चन्दा तो है मन का प्रतीक
कह लेते हम कितनी बातें
जैसे तुझसे है जन्मों की प्रीत
चन्दा ओ चन्दा , चन्दा ओ चन्दा

उगता गगन में नित नए आयाम लिये
प्रियतम का सा रूप लिये
करवा-चौथ को सारी सुहागिनें
माँगें और ढूँढें तेरी छवि में
अपने जीवन का मनमीत
चन्दा ओ चन्दा , चन्दा ओ चन्दा

सारे उलाहने तुझसे हैं
खनकती चूड़ी बजती पायल
सारी दुआएँ तेरे सिर
तारों की चूनर गाये गीत
चन्दा ओ चन्दा , चन्दा ओ चन्दा

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

अभी तो अहसास है तेरा

उन्नीस अक्टूबर , छोटी बेटी का जन्मदिन , दो दिन उसके साथ ही बिता कर लौटी हूँ । तीनों बच्चे जब छोटे थे , उनके दादा जी बड़ी पोती को शेर , छोटी पोती को चिड़िया और छोटे पोते को तोता कहा करते थे । बड़ी बेटी ने भी छोटी बहन को चिया कहना शुरू कर दिया था । यही चिया पिछले साल कॉलेज के बाद की छुट्टियाँ घर बिता कर , जिस रात नारसी मुंजी मुम्बई के एम.बी.ए.के एंट्रेंस टेस्ट के इन्टरवियु के लिये गई , उसी रात की अगली सुबह के अहसास ने इस नज्म को लिख दिया ।

अभी तो अहसास है तेरा
चादर की उन सलवटों में
बिस्तर अभी नहीं बदला मैंने
अभी तो अहसास है तेरा
फ्रिज में रखे उस बचे दूध के गिलास में
उसको अभी-अभी है देखा मैंने 

चिड़िया मेरी ने उड़ान भरी
दूर , बहुत दूर आकाश में
मैं खुश हूँ बहुत , बहुत
मैं देख लूँगी दुनिया
तेरी आँख से , तेरे साथ साथ में

लम्बी उड़ान भरते ही
दूर हो जाते हैं , घरौंदे से
मस्ती के उस साथ से
क्या करें , मजबूरी है
तेरे उड़ने को आसमान भी जरुरी है
तेरा अहसास , तेरी खुशबू
फ़िज़ाओं में आस पास है

तेरे अहसास के अहसास को
सँजो के रखना चाहा
सुबह उठते ही ये सोचा
न कोई खलल हो
तेरी नीँद में , किसी शोर से
जग कर भी मैं हूँ किस नीँद में
बिस्तर है तेरा खाली
और अहसास ने तुझे पास बुला रक्खा है

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

पानी पर तेरा चेहरा

पानी पर तेरा चेहरा
ख़्वाबों ने बनाया
कई कई बार ...
रँग हकीकत ही न भरने आई


चलती फिरती मूरत में
ईमान का रँग
थोड़ा ज्यादा होगा ...
वो शहजादा होगा
हसरत कहने आई

पकड़ के आयेगा जब वो
मेरे ख़्वाबों की उँगली
नाक-नक़्शे तस्वीर में
जी उट्ठेंगे ...
महक उट्ठेगा घर अँगना
खुशबू सी आई

रास्ता देख रही है कलम
दम साधे हुए हैं अल्फाज़
वो रुत आई कि आई ...


ये नज्म मेरी बेटी के भावी जीवनसाथी के लिये , जिसका मेरी लेखनी को बड़ी बेसब्री से इन्तज़ार है ...

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

वक्त का पहिया

वक्त का पहिया घूमता जाये
जीवन हाथ से छूटता जाये

बचपन बीता , यादें सुनहरी
छाप दिलों पर छोड़ता जाये

कैसे पकड़ें , यौवन अपना
धोखे का रँग छूटता जाये

साँझ का झुटपुटा , खोल पुलिन्दा
दुखड़ा अपना खोलता जाये

जीवन अपना , अनमोल मोती
कर्मों की गाथा बोलता जाये

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

तुझमें वो मूरत

मेरे सपनों में आते हो जब तुम
बहुत बातें करते हो
आँख खोलती हूँ जब मैं
पास बैठे हो देखती हूँ
वही अक्स ढूँढती हूँ
पूछती हूँ जब मैं कि
' क्या हुआ '
' क्यों ' तुम्हारा जवाब है
या कि सवाल ?
सवालों सवालों में उलझे हैं हम
वही है सूरत , वही है सीरत
जब तक मैं ढूँढू
तुझमें वो मूरत
ये दुनिया ख़ूबसूरत है
ये दुनिया ख़ूबसूरत है

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

तार-तार सारी कहानी

कमजोर हो जाते हैं वो हिस्से
वक्त की चादर में पैबन्द लगे

चुक जायेगी उम्र सारी
ये कलाकारी रफू ही लगे

रफूगर के माथे पे शिकन
फनकारी भी मजबूरी ही लगे

गोटे-किनारी , सलमे-सितारे
हसरतों को ओढ़नी लगे

उम्र लगे सीते हुए
पलक झपकते ही रँग बदरँग लगे

टाँका-टाँका सिले लम्हे-लम्हे के सितम
टूटा टाँका तार-तार सारी कहानी ही लगे

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

पाकीज़गी हमारी खुराक है

पहले आप , पहले आप वाले देश में ; मैं ही मैं , मैं ही मैं होने लगी

वो भी चलें , हम भी चलें , क्या सब साथ चल सकते नहीं

ऊपर वाला हर उस दिल में रहता है , जहाँ फर्क किया जाता नहीं

वो मौजूद है कण-कण में , फिर भी हम उसे देख पाते नहीं

हम उसे महसूस करते हैं , प्रार्थनाओं में , इबादत में

मन्दिर हो कि मस्जिद हो ,दुआओं को उठे हाथों में

हिन्दू करता है साक्षात्कार परमात्मा का

मुस्लिम करता है दीदार अल्लाह का

एक ही नूर है , तरीके उस तक पहुँचने के जुदा-जुदा हैं

इन्सानियत का धर्म है सब से बड़ा , खुद चलो औरों को भी चलने की जगह दे दो

इतिहास नहीं बख्शेगा , लाशों के दिलों पर जो लिखने चले हो तुम

पाकीज़गी हमारी खुराक है , कुछ खाना मन को भी दे दो , इन्सान बने रहने दो

लम्हों ने खता की , सदियों ने सजा पाई ; जुनूनों ने की गलती , निर्दोषों ने सजा पाई

इतना सामान सर पर इकट्ठा मत करो , कि टूटे रीढ़ की हड्डी , पीढ़ियों को बोझा ढोना पड़े

चलने की जगह हो , उड़ने को कहाँ जाएँ

मंगलवार, 31 अगस्त 2010

तेरी चाँदनी बटोरी हमने

किश्तों में मिली
कैसा है सिला
जिन्दगी तेरे सिवा
कोई लुभा न पाया हमें

सहराँ की तपती रेत पर
साये की हसरत लिये
टुकड़ों में धूप बटोरी हमने

दरख्त के साये में
छन-छन के आती
धूप निहारी हमने

चाँद पहलू में लिये
चाँदनी की आरजू में
यूँ रात गुजारी हमने

कैसा है सिला
किश्तों में मिली
जिन्दगी , तेरी चाँदनी बटोरी हमने

रविवार, 22 अगस्त 2010

इसके सिवा कुछ भी नहीं मैं

मैं एक नन्हीं बच्ची हूँ
सारी उम्र ज़हन में ,
बचपन ही बोलता रहा
माँ सी कोई गोदी ,
पिता का सर पे हाथ ही खोजता रहा

मैं एक पत्नी हूँ
मन चकोर की तरह ,
पिया के इर्द-गिर्द ही डोलता रहा
सूरज चढ़ता उसी की देहरी पर ,
वही साँझ के पट खोलता रहा

मैं एक माँ हूँ
जिगर के टुकड़ों में मन ,
अपना ही अक्स टटोलता रहा
हर कोई ढूँढता है पहचान ,
रिश्तों को तोलता रहा
अपने ही वजूद का हिस्सा है जो ,
टुकड़ों में बोलता रहा

शनिवार, 14 अगस्त 2010

कुछ वतन की बात करें

पन्द्रह अगस्त पर ...
अपने दायरे से बाहर निकलें तो कुछ वतन की बात करें
काँटों से दामन छुड़ा लें तो खुशबु-ऐ-चमन की बात करें

उलझे हैं साथी में रोजी-रोटी में
हादसों से बाहर आ , सुकूने-वतन की बात करें

आसमान छूती हुई है हर शय
गिरी हमारी ही कीमत , अदबे-वतन की बात करें

इतरा कर झुक जाती वो डाली
मुस्कराती हो जिसकी हर कली , वफ़ा-ऐ-वतन की बात करें

सीने में समन्दर आ ठहरे
वीराँ भी गुलशन हो जाये , खुशबू-ऐ-वतन की बात करें

बिखरा हुआ तो हर फूल है उदास
सेहरे में गुँचा हो जाएँ , शाने-ऐ-वतन की बात करें

अपने दायरे से बाहर निकलें तो कुछ वतन की बात करें
काँटों से दामन छुड़ा लें तो खुशबु-ऐ-चमन की बात करें


रचना वर्मा की पोस्ट ' कहां है वो जज्बा ऐ आजादी ' पर आप आमंत्रित हैं

बुधवार, 11 अगस्त 2010

जख्म जो फूलों ने दिये

फूलों के जख्म यानि संवेदन-शील रिश्तों की मार के जख्म , सजा के बैठे थे फूलदानों में यानि रिश्तों को ..मार के जख्मों को ..दायरों की दीवारों में बाँध के बैठे थेअब ये पोस्ट वन्दना जी के नाम ..इस का श्रेय उनके ब्लॉग 'जख्म जो फूलों ने दिए ' को जाता है...
जख्म जो फूलों ने दिये
हाय सजा के बैठे थे , फूलदानों में
अहसास भूलों ने दिये
रुका पानी गन्दला हो जाता है
बहते जीवन में दर्द शूलों ने दिये
कितनी मासूमियत से खिलते हैं
वफ़ा की राह में वक्ती झूलों ने दिये
अपनों के हाथ अपनी नब्ज देखो तो
उठे जो हाथ उन्हीं वसीलों ने दिये
जख्म जो फूलों ने दिये

रविवार, 1 अगस्त 2010

तेरे मटके के पानी का वो हिस्सा

दोस्ती के जिस जज्बे ये नज्म लिखवाई , उस जज्बे को सलाम ...
आज फ्रेंडशिप डे है जी ...मेरी राहों के हमनवाँ
तेरे मटके के पानी का वो हिस्सा
जो सारे का सारा मेरा है
अब ये मेरी मर्जी है कि
मैं उसे पिऊँ या माथे से लगाऊँ
या फिर धोऊँ राहों के हादसे
और ये तेरी मर्जी है कि
तू उसे रक्खे हिफाज़त से या कि छलकाए
मेरा भी कुछ हक़ है उस पर
कि उसे तकती निगाहें मेरी भी हैं
तेरे मटके के पानी का वो हिस्सा
जो सारे का सारा मेरा है
इतनी भी नहीं सँग-दिल मैं
कि उसे बाँट न पाऊँ
जब जानती हूँ कि तेरे लिए मेरे जैसे कई और हैं
मेरे लिए इतनी है बहुत
मेरे हिस्से की धूप , सारी की सारी , पूरी की पूरी
मुझे तो रश्क है तुझ पर ,
क्या तुझे भी रश्क है अपनी रहनुमाई पर
तेरे मटके के पानी का वो हिस्सा

शनिवार, 24 जुलाई 2010

कोई थपकी , कोई झिड़की , न कोई खजाने की खिड़की

कर्म करते करते पता नहीं कब काम आदमी को छोड़ जाते हैं या आदमी काम करना छोड़ देता है । और जैसे जिन्दगी फेड होती जाती है । हर जिन्दगी का हश्र यही क्यों है ...आज का हँसता-गाता चेहरा कल एक फोटो फ्रेम में तब्दील हो जाता है । हमारे क्लब की बड़ी सीनिअर मेम्बर श्रीमती कमला सब्बरवाल , सहज , हँसमुख , मिलनसार ...अचानक बीमारी का पदार्पण ...छः महीने के अन्दर दुनिया को अलविदा । सब्बरवाल साहेब ...धनुष की तरह झुके हुए कन्धे , उम्र की वजह से अशक्त चेहरा ...कह रहे थे ...' उसने हमें कभी दुःख नहीं दिया , बस यही दुःख दे गई ' । बहु ने कहा कि...' हम लोग रो पड़ते थे तो यही कहती थीं कि देखो मेरा कोई काम अधूरा नहीं है , क्यों रोते हो '। मौत की पदचाप सुन कर तो बड़े बड़े डोल जाते हैं , कोई कैसे इतना सहज हो कर मृत्यु को गले लगा सकता है ।
रागी गा रहे थे ...
हाड़ जले जैसे लकड़ी का फूला , केश जले जैसे घास का फूला
अपने कर्मों की गत , मैं क्या जानूँ , बाबा रे

बीमारी के दिनों में , मिसेज सब्बरवाल से मिलने गयी थी तो देखा कि सब्बरवाल साहेब कुर्सी में लगभग धँस कर बैठे हुए थे , बिना सहारे के वो उठ कर खड़े भी नहीं हो सकते थे , पिछले दिनों बहुत बीमार रहे थे , मिसेज सब्बरवाल ने जी जान से सेवा की थी । और अब वो कातर निगाहों से देख रहे थे ...पत्नी की ऐसी बीमारी ...जीने के दिन थोड़े रह गए थे ...फिर भी वो हँसते हुए कह रहीं थीं कि कुछ नहीं डॉक्टर दवाई दे रहें हैं , इन्फेक्शन ठीक हो जाएगा । गरिमामयी सहजता और प्रफुल्लता के उदाहरण का सा जीवन जिया उन्होंने । उन्हें मिल कर आई थी तभी ये पंक्तियाँ मन से निकल कर कागज़ पर उतर आईं थीं ।
इक दिन ले आती है उम्र इस पड़ाव पर
एक घुल रहा होता है दुनिया छोड़ जाने के बहाने पर
दूसरा सहमा बैठा होता है साथ छूट जाने के डर से
कौन बाँटेगा वो यादें
उम्र का तय था किया सफ़र जो साथ में
अपने हाथों से छूटी आगे चलने की डगर
सालों-साल गुजरे बड़ी तेजी से
अब ये वक़्त आन खडा है सिरहाने पर
कोई भी हाथ रोक न पायेगा
कोई थपकी , कोई झिड़की , न कोई खजाने की खिड़की
दूर खड़े देख रहे हैं
शरीर नश्वर है , कौन सी बात है जो साथ जायेगी
जब न होगा हाथों में दम ,
वो तेरी सोच यहीं जिन्दा रह जायेगी
यही तो खजाना है , साथ जाना भी है
खुशबू को यहीं छूट जाना भी है

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

वजनी क्या है

सूखी रोटी न उतरेगी गले से
प्यार का सालन चाहिए

मेरी तुमको हो न हो जरुरत
मुझको तो दुनिया चाहिए


सफ़र के साथी हैं हम
हाथों में हाथ भी तो चाहिए


नजर नूरे-इलाही हो तो
बातों में दम भी तो चाहिए


वजनी क्या है तू या मैं
जीवन भी चलना चाहिए


सूखी रोटी न उतरेगी गले से
प्यार का सालन चाहिए

मंगलवार, 29 जून 2010

थोड़ी दूर वो साथ चलें

थोड़ी दूर वो साथ चलें तो 
अपना आप भी अच्छा लगता है
अरमानों की इन गलियों में
सपना सा भी सच्चा लगता है

अपने दिल की बात कहूँ मैं
मुड़ के आयें वो मौसम जो
अपनों का सँग-साथ सुहाना अच्छा लगता है

बहुत है चाहा हमने तुमको
कह न पायें वही बात जो
दिल माँगे वही साथ पुराना अच्छा लगता है

थोड़ी दूर वो साथ चलें तो
अपना आप भी अच्छा लगता है
अरमानों की इन गलियों में
सपना सा भी सच्चा लगता है

शनिवार, 19 जून 2010

माली के चमन में उगते हैं गुलाब

फादर्ज़ डे पर

माली ने , बागबाँ ने सीँचा है प्यार से
उसके उसूलों ने रखा हिफाज़त से
कानून-कायदे , रस्मों-रिवाज़ जो पहले थीं बन्दिशें
आदत में उतर आईं तो बनीं वजूद की जुम्बिशें
हद के अन्दर जुनूँ की कोई हद नहीं
हद के अन्दर चाहत की कोई हद नहीं
ठोकर खाना , गिरना , फिर चलना और जोश से ; सिखाया अपनी मिसाल से
ज़िन्दगी तेरे लटके-झटके , नित नये पटके , हैं ये किस अन्दाज़ से
समाज का कारोबार है उसूलों के दम पे ,
अमनो-अदब पे है दुनिया कायम ,
हो सके तो इन्सानियत की मीनार बन के देख
दुनिया पहचाने तो क्या गम है ,
गर्म-जोशी का रँग कुछ हमने भी भरा है ,
अपनी चित्रकारी उठा के देख
हर बागबाँ को फूल खिलने की आस होती है
काँटों में उलझ जाने के डर से कोई राह छोड़ता नहीं
उगते होंगे कुकुरमुत्ते रेगिस्तानों में ,
मेरे माली के चमन में उगते हैं गुलाब ,
और उगता है काँटों में भी फूलों की महक का ऐतबार ..!

बुधवार, 16 जून 2010

ईंट-गारे से छत नहीं होती

आज फिर अखबार में पढ़ा ...ऑनर किलिंग ...एक और बेटी भेँट चढ़ गई...
जाने वाली की नजर से ...
घर के बाहर तो छत नहीं होती
घर के अन्दर ही मेरी छत छीनी क्यों कर ?
मेरे सिर पर जो लहराता था बादल बन कर
उसी बादल की नमी सोखी किसने
बिजली बन कर मेरी साँसों की गति रोकी किसने
मेरी छत की मजबूती में छेद हुए
ममता का आँचल भी न महफूज़ हुआ
पराये घर में मैं पलती रही
मेरे अपनों में कोई मेरा सगा न हुआ
जिन्दगी सबको प्यारी है
मेरी साँसों से मेरे माली को ऐतराज़ हुआ
मेरी छत के नीचे , किसकी दुनिया है अन्धेरी
और कौन गुनहगार हुआ
ईंट-गारे से छत नहीं होती
प्यार का चमकता रँग न मेरी छत का नसीब हुआ !

गुरुवार, 10 जून 2010

नजर की गुफ्तगू

यूँ ही नहीं ढूँढती हैं आँखें , किसी को बेसबब
दिल से दिल की राह जाती है , यूँ झलक

जाते हुए जो नजर उठा कर भी न देखा उसने
बिन कहे समझो के हम उसके दिल से गए उतर


मायूसी के मन्जर हैं या दिल का कमल खिला
बात इतनी सी पे रिश्तों के मायने जाते हैं बदल


नजर की गुफ्तगू नहीं कहने की बात है
नर्मियाँ , तल्खियाँ दूर तक चलती हैं बेहिचक


यूँ ही नहीं ढूँढती हैं आँखें , किसी को बेसबब

दिल से दिल की राह जाती है , यूँ झलक

गुरुवार, 3 जून 2010

संवेदनाएँ छलती हैं

संवेदनाएँ चलती हैं
ऊँचा हो जाता है जब
क़द सर से
संवेदनाएँ छलती हैं ।
मुश्किल है
मन चलता है
पकड़ के मुट्ठी में रखना
खलता है ।
मन के पानी पर
बनती बिगड़ती तस्वीरें
बहुत बोलती हैं ;
मौका लगते ही
बाँध के सारे द्वार खोलती हैं ।
कोई ऐसी दिशा दे
कि न रोये नादाँ
खुद को छल के ही
न खुश होवे इंसाँ ।
संवेदनाओं के पँख
अगर हों उजले
धुल जाए मन का मैल
पारदर्शिता के तले ।
संवेदनाओं को
दिशा मिलती है
दशा बदलती है ।

मंगलवार, 25 मई 2010

खुद से ही दूर

नहीं जाना है उस गली
जो कर दे मुझे खुद से ही दूर

पानी से पतला जीवन है
फिसला जाता है अपना ही नूर

अग्नि से तेज क्रोध है
जल जाता है तन मन वजूद

हवा से तेज मन है चलता
नहीं संभलता है गति का अवरोध

आकाश से खाली हैं गर विचार
भारी नहीं है मन उदार

धरती सा धैर्य है अगर
फलें फूलें फसल भरपूर

खुद से मिल कर आ गए
छलावों में थे हम खुद से कितने दूर !

शनिवार, 22 मई 2010

ऐसी होती है दोपहर

आँखों में कटता है पहर
ऐसी होती है दोपहर

जीवन की दुपहरी दम माँगे
नाजुक मोड़ों पर तन्हाई
चुभता सूरज भी ख़म माँगे
खोल ज़रा तू हाले-जिगर
ऐसी होती है दोपहर

प्राण साथी का ही काँधा माँगे
तप कर पिघली है तरुणाई
घिरे बदरा से बरखा माँगे
तपता आसमाँ भी गया है ठहर
ऐसी होती है दोपहर

मंगलवार, 11 मई 2010

इतनी सी नमी

कागद काले हैं किये
या धड़कन को पिरोया साँसों में
नजर-नजर का फेर है
गीत बन जाते , शब्दों के हेर-फेर से
अजनबी से लगते हैं
दिल का साज छेड़ कर देखो
तराने बुनते हैं
सागर अँजुली में लिए
ये वो दोना है
पी ले तो अपना सा है
छूटे तो धरती पर बिखरे
कागद काले हैं किये
इसी के दम पे रात कटे
इसी के दम पे दिन की शुरुआत हो
नजर-नजर का फेर है
सँवर के आदमी इन्सान बने
आँधी-तूफ़ान को सहने में ,
बेलों के वजूद ही काम आये हैं
सहराँ में फूल खिलाने को ,
इतनी सी नमी से भी , आराम आये

गुरुवार, 6 मई 2010

धुएँ का पहाड़

आदमी कुछ भी नहीं
हसरतों के सिवा
धुएँ का पहाड़
उठता है
क्या जाने किधर से आता है
चिँगारी दिखाने की देर है
लपटों से घिरा नजर आता है
कभी बेड़ियाँ , कभी पायल
और ख़्वाबों की सैर-गाह
कभी गुबार और
लपटों से झुलस जाता है
आदमी कुछ भी नहीं
चिँगारी , गुबार और लपटें
धुएँ का खेल है
आदमी को बीमार कर जाता है

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

तू जो है सबसे करीब

नीचे लिखी कविता में ...सबसे करीब ...जिसके लिए लिख रही हूँ , मेरी भान्जी...बड़ी दीदी की बेटी और मैं सबसे छोटी मासी । उसकी आँखों से जैसे तीव्र बुद्धि टपकी पड़ती थी । चेन्नई की इंजिनियर , अमेरिका से ऍम एस और फिर वहीं जॉब , आजकल डेप्युटेशन पर अपने हस्बैंड के साथ सिंगापुर में ....उसके बच्चे भी काफी बड़े हो चुके हैं । पिछले दिनों सिंगापुर में एक मीटिंग में मेरी माँ यानि अपनी नानी के लिए जो कुछ उसने कहा , उस की ही मुझे लिखी हुईं पंक्तियाँ यहाँ पेस्ट कर रही हूँ । ( माता जी पिता जी , उसने अपने नानाजी नानी जी के लिए लिखा है )
Mataji and Pitaji were very dear to all of us। Their example in their life, their sacrifice for their children will always be like a guiding light. I had given a talk on Indian women to a group of people very recently about 3 months ago. I had especially shown a picture of Mataji and explained what a wonderful women she was and how the life of women has changed over time in India. Thing that I told which I felt was the best thing about her was like this - when I would land in my grandmothers village, I would run all the way to her house, to get the "best hug in the world". How can one forget that?
कविता पेश है ....
तू जो है सबसे करीब
सात समुद्रों की दूरी है
तेरी आँखों की सुनहली चमक
नूर है कुदरत का
या अपनों से मिलने की खनक !
तेरा बचपन , मेरा कैशोर्य , है तेरी सुगँध से सराबोर
वो सबसे अलग घर के कोने तलाशना
कि कह डालें वो सब , जो गुजरा है साथ
ऐसी तू रकीब
वो खुशी का झरना सा फूट पड़ना
कि रह रह के हर बात पे , हँसी का तोहफा पाना
वो बाग़ में शीशम के तले ,
के के का पहला पहला ख़त तुझसे साझा करना
बेइन्तिहाँ बातों में लगता कि कोई है सुनता
वो घबरा के घर को लौट आना
और फिर बातेँ बनाना
है आज भी ताज़ा ,
ऐसी तू करीब
समय के अन्तराल पर , नहीं रहता सब कुछ वैसा
तारे तोड़ लाने की ख्वाहिशों में ,
बहुत कुछ है छूट जाता
वक़्त ने तराशना है ,
ज़मीनी दूरी हो कितनी भी
यादों के दियों में मुस्कराती हो
आकाश में चन्दा सी उतर आती हो
ऐसी हो अमीर
तू जो है सबसे करीब


हम सबके पास ऐसे यादों के खजाने (treasure hunt) होते ही हैं ....

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

अब आगे तपस्या होगी

मैं उससे मिली थी , कभी घूमते वक़्त रास्ते में पतिदेव ने परिचय कराया था , ये हमारे बैंक में कम्पनी सेक्रेटरी हैंपरसों रात खबर मिली , ट्रेन से उतरते वक़्त ट्रैक में फँस जाने से उसकी दोनों टाँगें......लेखनी लिखने से इन्कार कर रही है , दिलासे के लिए भी शब्द नहीं हैंजीवन जैसे एक ज्ञ हो और जिन्दगी ने किसी बहुत ही जरुरी चीज की आहुति माँग ली होईश्वर तुम्हें असीम आत्मिक बल प्रदान करेंये भी तुम्हारी ही हिम्मत थी कि हादसे के बाद भी खुद ही फोन म्बर बता कर घर सूचित कर सके

अब आगे परीक्षा होगी
अब आगे तपस्या होगी
दिल को फूलों पर ही चलना भाता है
काँटों पर कैसे बसर होगी
हर मोड़ पे खाई है कब समझा है कोई
पगडंडी पर भी गुजर होगी
चोट खाता है तो रोता है दिले-नादाँ
अश्कों में कैसे बसर होगी
सैलाब में डूबे तो किनारा कोई नहीं
साहिल पर भी तेरी नजर होगी
फूल-कलियाँ-काँटे , कम-ज्यादा , झोली भर बाँटे
अपनी राहों पर भी नजर होगी
तुझको चलना है तूफाँ में रौशनी लेकर
हौसले में ये आँधी भी बेअसर होगी

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

बुलबुलें जाने लगी हैं

एक हफ्ते की छुट्टी लेकर दोनों बेटियाँ घर आईं , चौथे दिन से ही उल्टी गिनती का अहसास होने लगा था , मन पहले डूबा , फिर हौले से तैर कर ऊपर आया और खुद को समझाते हुए जग से कदम मिलाते हुए चलने लगा | इस प्रक्रिया को इस कविता में सहज ही महसूस किया जा सकता है | भावुक मन की समझदारी भी इसी में है .....
बुलबुलें जाने लगी हैं
वीराने की आवाजें आने लगी हैं
मीलों चलना होता है सहराँ में
अपनी नमी घबराने लगी है
किनारे तोड़ने को फिर बहाने आ गए
बरसाती नदिया बेतहाशा छलकाने लगी है
खुद से अलग हो कर भी कोई चल है पाता
टुकड़ों में कोई रौशनी जगमगाने लगी है
चहचहाती हैं बुलबुलें यादों में
खुद को देखा , जिन्दगी लौट आने लगी हैं
लौट कर आयेंगे फिर से , फुसफुसाता है गुलशन
उम्मीद फिर बहलाने लगी है
इनके परों ने टोहना है आकाश को
मेरी बेड़ियाँ शर्माने लगी हैं

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

देर उतनी ही हुई है

जागी हुई रात के सोये हुए सपनों
देर उतनी ही हुई है
जितनी दूरी है मेरे रूठे हुए अपनों
पलकों की मुंडेरों पर , थम गये हो
ज़रा ठहरो
कोई जागा है शब भर को
जादू की छड़ी हो तुम
सपने सब हो जाते अपने
बन्द आँखों में करवट ले लो
सच का रँग भर दो
जागी हुई रात के सोये हुए पाहुनों
देर उतनी ही हुई है
जितनी दूरी है , मेरे अँगना से
तेरे क़दमों की

बुधवार, 31 मार्च 2010

न जाने कौन सी बात

उड़न तश्तरी की ताजा पोस्ट से प्रेरणा लेकर....

न जाने कौन सी बात पहचान बने
वो मुलाकात कल्पना की उड़ान बने

पल्लवित होती बेलें , नाजुक ही सही
बढ़-बढ़ के छूने को आसमान बने

तपन गर्मी की , बौरों से लदे
पेड़ों के फलों की मिठास का गुमान बने

चाँद सूरज हैं नहीं दूर हमसे
धरती पर रोज उतरें वरदान बनें

पीड़ा में छटपटाता है हर कोई
कौन जाने प्रेरणा रोग का निदान बने

जरुरी है खुराक इसकी भी
तन्हाईं में भी होठों पर मुस्कान बने

गुरुवार, 25 मार्च 2010

अन्तिम विदाई


12 मार्च , चाचा जी ऐसे चले गए जैसे बड़े भाई के पीछे-पीछे लक्ष्मण चले गए हों | अपने लिए कितने कठोर नियम थे और दुनिया के लिए कितने नर्म दिल ! तीस साल पहले कितने ही गाँवों के सरपँच रहे ...निष्पक्ष फैसले और राजा जैसे दिल के साथ सबका आदर-सत्कार | प्रसिद्धि तो सितारों का खेल होती है , उस वक़्त सँचार के ज्यादा साधन नहीं थे ...उसी वक़्त में अपने वचन पर स्थित रहने की, अनुशासन की , फराखदिली की असली पहचान हो सकती थी | खामोशी के साथ वो समाज के लिए उदहारण का सा जीवन जी कर गए |
२४ मार्च , कितने ही लोगों की तरफ से सामाजिक संस्थाओं की तरफ से श्रद्धांजलि अर्पित की गई | उनकी छोटी पोती ने अपनी लिखी हुई डायरी के अँश सुनाये , जो बेहद सँवेदनशील थे कि जब वो छोटी थी कैसे दादा जी उसके भाई के रिजल्ट पर खुश हो कर उन्हें टोकन दिया करते थे और वो हर दिन उनके बाहर से आने का इंतजार किया करते थे ....फिर कैसे एक दिन कॉलेज से आने पर उनके आई.सी.यू.में भर्ती होने का समाचार मिला , मिलने गई तो वो ऑक्सीजन मास्क हटा कर कुछ कहना चाह रहे थे ....हाथ उठा कर आशीर्वाद देना चाह रहे थे , मगर हाथ उठा नहीं पा रहे थे और मिलने का वक़्त ख़त्म हो चुका था | और वो होंठ जो कुछ कहना चाह रहे थे ....नीले पड़ गए ..... |
मैंने चाचा जी के लिए कुछ कवितायें लिखीं थीं पर वहाँ उठ कर बोली नहीं .......

आख़िरी सफ़र है
हुजूम है साथ आया
अन्तिम विदाई देने
तोड़ के तिनका
हो जायेंगी राहें अलग
साथ छूटा मोह भी तोड़ लिया
दूर मक्खियाँ भिनभिनाने का सा स्वर
चेतना लौटी है
आह, कैसा ये सफ़र , मुँह मोड़ लिया
माली ने गुलशन था खिलाया
दिन , महीने और साल गुजर जायेंगे

छाया तो होगी मगर , बस आप नजर आयेंगे


२२ जुलाई २००१ मेरी माँ की आख़िरी रात ....जब उन्हों ने दुनिया छोड़ गए मेरे भाई बहनों और छोटे चाचा जी को याद कर कहा था ....एक एक कर चारों चले गए ....उस वक़्त मैं लिखा नहीं करती थी ...पर आज वही पंक्ति मेरी कविता की पहली पंक्ति बनी .....

एक एक कर चले गए
कुछ जाने को तैय्यार खड़े
पदचाप काल की सुन कर भी
हम सारे चुपचाप खड़े

अन्त हुआ उस युग का भी
छत्र-छाया में जिसकी थी पले
मोल अतीत का उतना ही
जितना ये अपने प्राण जले

गुम जाते हैं चेहरे तो मगर
कर्म सदा बोलते ही खड़े
प्रतिपल वो दुहाई देते हैं
जिन्दा रहते हैं अहसास बड़े


मेरे भाईजी ने अन्तिम श्रद्धांजलि दी और वो किस्सा भी सुनाया जब पन्त नगर यूनिवर्सिटी की सीनियर सिटीजन सोसाइटी ने चीफ-गेस्ट के तौर पर मेरे पिताजी को बुलाया था | उस गोष्ठी में सबने अपने बच्चों के व्यवहार पर खेद जताया था और कहा था कि बच्चों को बड़ा कर देने के बाद जायदाद का हिस्सा नहीं देना चाहिए | आखिर में , चीफ-गेस्ट होने के नाते पिता जी ने अपने विचार रखे कहा कि मेरे बुजुर्ग भाई नौकरियों के सिलसिले में अपने माँ-बाप से दूर रहे हैं , शायद इसलिए इनके बच्चों ने इन्हें अपने दादा दादी ( माँ -बाप ) की सेवा करते नहीं देखा , तभी ये संस्कार इनके अन्दर नहीं उतरे | मैं कैसे कह दूं कि बच्चों को कुछ नहीं देना चाहिए , मैनें अपने लिए कुछ नहीं रखा , पर मेरे बच्चों को छोड़ो , मेरे भतीजों के बच्चे तक मेरी सेवा करते हैं ....मेरे भाई जी ने कहा कि गर्व से मेरा सीना चौड़ा हो गया | इसके बाद भाई साहब ने मेरी लिखी हुई कविता ये कह कर सुनाई कि इसे मेरी छोटी बहन ने लिखा है ....मैंने कभी कुछ बेटियों को ये कहते सुना था कि मायका माँ-बाप से ही होता है ..बस मन ने कुछ रच डाला था .....

माँ गईं ,पापा गए
भाई ने गले से लगाया तो
मायका कायम है
बचपन यादों की मुट्ठी में
सँग-सँग आया
मायका कायम है
जाना होता है सबको ही
छाया हो घनी तो
मायका कायम है
मुश्किल से मुश्किल मोड़ों पर
जोड़ेगा , उठाएगा ढालों पर
मायका कायम है
भाई ने गले से लगाया तो
मायका कायम है
इसके साथ ही भाई साहब ने कहा कि उनके संस्कार बने रहने चाहिए ...वो मर कर भी अमर हो गए हैं |
अहसास ही वो शय है जो कविता में जीवन का रँग भरता है |